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पापा की लाडली

मैं भी थी पापा की प्यारी गुड़िया
हँसती-खेलती आफ़त की पुड़िया।

बड़े ही नाज़ो-नखरे से पली थी मैं
अपने पापा की प्यारी परी थी मैं।

मेरी मुस्कान उनकी थकान मिटाती
न देखे मुझे जब बेचैनी बढ़ जाती।

उछलते-कूदते बीत गया बचपन
पता ही नहीं कब आया बड़प्पन।

पापा की नन्हीं गुड़िया हो गई बड़ी
दहेज की मुसीबत सिर पर खड़ी।

अनेक रिश्तों का लगने लगा ताँता
सब पूछते लड़की को क्या है आता।

पापा की गुड़िया बन गई प्रदर्शिनी
पर बिन दहेज़ के कोई बात न बनी।

जीवन भर की कमाई दाँव लगाई
पापा ने अपनी गुड़िया की पराई।

दहेज़ के अभिशाप ने न पीछा छोड़ा
पापा की लाडली का मनोबल तोड़ा।

नये रिश्तों से उसने ऐसी ठोकर खाई
प्रतिपल होता अन्याय वो सह न पाई।

पापा की गुड़िया बनी ऐसी कठपुतली
भूली चहक खुशी से पकड़ना तितली।

पापा से एक दिन मिलने जब आई
लाख छिपाया पर दर्द छिपा न पाई।

अपनी गुड़िया की देखकर ये दुर्दशा
छाती से चिपका पिता रोये बेतहाशा।

दहेज़ लोभियों को दिया कन्या दान
भुगत रही बेटी उसका ही परिणाम।


दिया मैंने दहेज़ रुपी पिशाच को बढ़ावा
गुड़िया की खुशियों का किया चढ़ावा।

अपनी गलती की सज़ा बेटी को न दूँगा
पैरों पर खड़ा कर उसे नवजीवन दूँगा।

किसी पिता के पैरों तले न फ़िसले फर्श
बेटियों के हक के लिए बनूँगा आदर्श।

बेटी नहीं पराया धन, है अपना ही अंश
समझेगा जब ये समाज,नहीं रहेगा दंश।

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10 Comments

Zakirhusain Abbas Chougule

16-Feb-2022 03:34 PM

Very nice

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Shrishti pandey

16-Feb-2022 12:29 PM

Very nice

Reply

Punam verma

16-Feb-2022 09:07 AM

Nice one mam

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